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वक़्त का फ़लसफ़ा✍

  • Writer: Smriti Tiwari
    Smriti Tiwari
  • Aug 2, 2017
  • 2 min read

कहते हैं ..... वक़्त हर ग़म भुला देता है । या फिर ,,,, इनकी गिरफ़्त में हम खुद को भुला देते हैं ??? भूलने - भुलाने की ये आदत है या ज़िंदगी काटने का हमारा फ़लसफ़ा समझ नहीं आता !! जब बचपन में खेलते हुए कोई खरोंच आती थी, तो रोकर दर्द भुला देते थे । लड़कपन में किसी पर नाराज़गी होती, तो गुस्सा फूट पड़ता और फ़िर मन का ज्वालामुखी सुसुप्तावस्था में चला जाता था । मग़र धीरे-धीरे वक़्त की रफ़्तार के साथ चहलक़दमी करते हुए हम भी 'परिपक्व' हो गए और बस खुद को भुला बैठे।। फिर क्या यहीं से शुरू हुआ एक नया दौर। 'दौर दुविधा का' !! क्योंकि अब खरोंच लगने पर रोकर दर्द नहीं भूलते बल्कि कोई बात नहीं की झूठी टीस मन में पालकर दर्द दबाने की कोशिश करते हैं । नाराज़गी होने पर खुलकर चीख नहीं सकते क्योंकि सहनशीलता का चूर्ण बरसों से पीना सीख चुके होते हैं हम ।। यही झूठा जामा पहने हम 'परिपक्वता' की सीढ़ियां चढ़ते जाते हैं, वक्त के साथ चहलक़दमी करते हुए और भूलते जाते हैं कि पीछे हम क्या थे ।। ग़मों की चुभन से बेफ़िक्र रहते हैं , क्योंकि वक़्त का यह साथ हमें हौसला देता है और पुराने दर्द अनुभव ।। क्योंकि वक़्त पीछे नहीं मुड़ता तो हम भी आगामी भविष्य की ओर पूरा ज़ोर लगाकर बढ़ते रहते हैं, तब तक जब तक वक़्त खुद हमें अपनी गिरफ़्त से आज़ाद नहीं कर देता !! इसलिये ही पूछती हूं कि क्या सचमुच - वक़्त हर ग़म भुला देता है । या फिर ,,,, इनकी गिरफ़्त में हम खुद को भुला देते हैं ??? ~~ मुक्त ईहा © https://smileplz57.wixsite.com/muktiiha Like @ https://www.facebook.com/me.smriti.tiwari/ Follow@ https://www.instagram.com/mukht_iiha/ 


 
 
 

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