Can not Write✍
- Smriti Tiwari
- Dec 16, 2017
- 3 min read
क्योंकि, लेखक वाली मुझमे बात नही !!!!
न ही कोई नज़्म है,
न मजमून, न कविता , न ही कोई कहानी है।।। बस चंद ज़ज़्बात हैं बेतरतीब से। बेबहर, बेसबर क्योंकि कागज़-कलम भी ढंग से पकड़ना आता नहीं मुझे!!!! लेखक कहलाऊँ ऐसा कुछ भी लिखना अब तलक आता नहीं मुझे!!! ............ संझा की बेला और हर रोज़ की तरह आज भी सूनी पड़ी अटारी। करीने से किनारे पर सजे हरसिंगार के पुष्प जो बिख़र रहे हैं कुछ-कुछ धरा पर निष्फ़िक्र से और मंद बयार संग झूमती तरु डाली । पंखों को पसार खुले आसमान में गोता लगाते हुए घरौंदों को लौटते हुए नन्हें परिंदे। और, वो जंग लगी रिक्त सी कोने में दबी आराम कुर्सी.. जिसके हत्थे पर मेरी हंसी गूंजती थी।। जब झल्ला कर मेरे हाथों से मुड़े कोरे पन्नों को छीनकर तुम कहते थे चुहलबाज़ी में कि.. "ये तुम्हारे बस का नहीं है!" हाँ सचमुच!! बड़े दिनों बाद आई हूँ आज़ इनसे मिलने लाल शर्मीले लजाते गगन को जी भर तकने। अकेले आना तो थोड़ा मुश्किल ही था इसलिए साथ लिए हूँ चाय की पुरानी प्याली। जिससे उठती गर्माहट मानो इन सर्द हवाओं संग घुल-मिल कर प्रकृति का संतुलन बनाये रखने को आतुर है !! मानो,, चित्त भी आतातुर है अनवरत कहते रहने को, क्योंकि तनहाइयाँ भी तो सदियों से ही खुलकर चीखने को व्याकुल हैं । सोचती हूँ .. आज फ़िर एक बार, लेखनी के घोड़ों को बहलाकर दूर तलक दौड़ा ही लूँ कुछ तो लिखूँ की लेखक की पदवी पा ही लूँ!! पर, आज़ भी मुझसे ये कागजी नाराजगी ज़्यादा ही चलती रहती है कलम भी वीराने में अर्धस्वप्न ही चुनती रहती है । कभी-कभार.. सोचती हूँ कि वर्णमाला के सुंदर मोतियों को चुनकर करीने से उन्हें भावों के धागे मे बुनकर टाँक दूँ एक पैबंद कि तरह अपनी कल्पनाओं के उधड़ते हुये पुराने होते सबसे प्रिय शाल में जो तुमने बरसों पहले सर्दियों कि एक रूहानी शाम को मुझे ओढ़ाया था ये कहकर कि रिश्तों में गर्माहट कम मत होने देना!! शायद इस तरह से ही पर, प्रकृति का संतुलन बनाये रखने मे कुछ तो मदद कर सकूँ चाय की प्याली की!! देख़ो न, रेत घड़ी से फिसलती हुई रेत की तरह कितना कुछ फ़िसल गया न मेरे हाथ से!! और मैं आज भी चाहती हूँ कि इसी अटारी पर तुम्हारे साथ बैठकर वो वक़्त दर वक़्त वाली नज़्म तुम्हारी आँखों में झांक कर फ़िर से तेरी बांह थामकर सुन सकूँ। तुम्हारी हृदय कि दीवारों पर चढ़ चुकी दुनियादारी की धूल धूसिर जो परतें हैं उनके मध्य एक हिस्से पर ही सही पर अपने प्रीत के शब्दों का मकड़जाल बुन सकूँ!! किन्तु, परंतु, ओहह.. देखो न मेरी भी समस्त कल्पनाएं इस चाय की प्याली की ही भांति बहुत ही जल्द सर्द हवा के थपेड़ों से मिलकर ठंडी पड़ जाती हैं । सब जैसे हृदय की गहराइयों में ही जम जाती हैं!! और तुम्हारी स्मृतियों के दौड़ते रेले से टकराकर जिंदगी की समय गाड़ी भी जैसे कंपित हो मद्धिम होती जाती है!! आज भी सर्द सांझ को तकती हारसिंगार के पुष्पों को छूकर महकती पंछियों के कलरव से गुंजित अटारी मे मैं चाय की प्याली संग आराम कुर्सी पर बैठी कागज़ के लिहाफ़ पर स्याही से प्रीत की कलमकारी वाली सजावट नहीं कर पा रही हूँ , अश्रु की सिलाई में लिपटे तेरी यादों के ऊन में शब्दों की बुनावट नहीं कर पा रही हूँ । क्योंकि. शायद .. तुम सच ही कहते थे कि..... ये कागज़-कलम को जोड़ने वाले ज़ज़्बात नहीं हैं मुझमें। बर्फानी सर्द रात में अलाव की सुलगती आग नहीं है मुझमें। बेशक़ ही शायद..... "लेखक वाली वो बात नहीं है मुझमें "!!!!! ••✍✍✍ © #Smriti_Mukht_iiha🌠 Facebook👍 : Smriti 'मुक्त ईहा' Instagram❤ : mukht_iiha Blog📃: www.mukhtiiha.blogspot.com Webpage🏷: https://smileplz57.wixsite.com/muktiiha छायाचित्र आभार🤗 : !n+erne+

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